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सिग्नल ढूंढ रहा पचपन।

"जब एंटीना की दिशा रिश्तों की तरह थी"

गर्मी की एक दोपहर थी। आसमान में बादल थे, लेकिन ज़मीन पर हलचल। छोटे से गाँव के एक घर में हल्की हलचल नहीं, बल्कि एक उत्सव का सा माहौल था। कारण? नया टीवी आया था। लकड़ी का भारी बॉक्स, जिसके अंदर एक छोटी सी काली-सफेद स्क्रीन और नीचे दो गोल घुंडी – एक आवाज़ के लिए, दूसरी चैनल बदलने के लिए।

पर टीवी लाना ही काफी नहीं था। असली चुनौती थी – एंटीना सेट करना।

छत पर चढ़ा था रमेश काका, हाथ में पेचकस और तार। नीचे खड़ा था बाबूजी, एक हाथ में बांस की छड़ी से बंधा एंटीना, और दूसरा हाथ कमर पर। आंगन में अम्मा और चाची, जिनकी नज़रें टीवी पर थीं – जिसमें फिलहाल सिर्फ "सफेद चींटियों" जैसी बर्फीली स्क्रीन दिख रही थी।

"अब थोड़ा दाईं ओर घुमा!" बाबूजी ने आवाज़ लगाई।

"हुआ कुछ?" रमेश काका ने ऊपर से पूछा।

"नहीं! वैसी ही झिलमिलाहट है!" अम्मा बोलीं।

बगल के घर की छत से मुकेश भैया झांकते हुए बोले, "थोड़ा और ऊपर करो! हवा की दिशा भी देखो!"

बच्चे – मोहन, गुड्डी और छुटकी – टीवी के पास लाइन से बैठे थे, मानो जैसे रामायण शुरू होने वाला हो। और जब अचानक टीवी पर एक धुंधली सी तस्वीर उभरी – किसी राजा का दरबार, किसी ऋषि का चेहरा – सबके चेहरे खिल उठे।

"आ गया! आ गया!" सबने एक सुर में चिल्लाया।

उस एक पल में, कोई मोबाइल नहीं था, कोई इंटरनेट नहीं, पर पूरा मोहल्ला जुड़ गया था। कोई एंटीना पकड़ रहा था, कोई स्क्रीन देख रहा था, कोई सीढ़ी पकड़े खड़ा था – सब अपने-अपने हिस्से का ‘नेटवर्क’ बना रहे थे।

उस दिन सिर्फ टीवी का एंटीना नहीं सेट हुआ था, रिश्तों की भी दिशा ठीक हो गई थी।

उस झिलमिल स्क्रीन में सबको सिर्फ सीरियल नहीं, साथ बिताए वो छोटे-छोटे लम्हे दिख रहे थे – जो आज की "HD" जिंदगी में

कहीं धुंधले हो गए हैं।

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