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मां ही पहला पाठ पढ़ाती है

मां बचपन में पढ़ाई का पहला कोर्स कराती थी, जिसका साथ जीवनभर रहता है" – 

मां: बचपन की पहली शिक्षक, जीवनभर की पाठशाला

जब हम स्कूल की बात करते हैं, किताबों की, या किसी शिक्षक की – तो एक चेहरा सबसे पहले याद आता है: "मां"। वह जो ABCD या क, ख, ग नहीं सिखाती सिर्फ, बल्कि वो मूल बातें सिखा देती है जो किताबों में नहीं मिलतीं – संस्कार, धैर्य, आदर, मेहनत की कीमत और खुद पर विश्वास।

मां ही पहला पाठ पढ़ाती है

जब हम बोलना सीखते हैं, सबसे पहले 'मां' बोलते हैं। और वही मां धीरे-धीरे शब्दों का मतलब, बोलने का तरीका और दूसरों से व्यवहार का तरीका सिखाती है। वह हमारा पहला स्कूल होती है – जहां पाठ्यक्रम में होता है:

सम्मान देना और पाना

सच बोलना

गिरकर फिर उठना

माफ करना और मुस्कुराना

सीमित संसाधनों में खुश रहना

शब्द नहीं, संस्कार सिखाती है

कई बार मां हमें सिर्फ यह नहीं सिखाती कि 2+2 = 4 होता है, बल्कि वह सिखाती है कि अगर तुम्हारे पास दो रोटी हैं और कोई भूखा है, तो एक उसे दे दो। यह कोई स्कूल की किताब नहीं सिखा सकती।

 घर ही पहली पाठशाला बन जाता है

मां के साथ बिताया बचपन का समय ही असल 'foundation course' होता है। वही course जिसे कोई certificate नहीं देता, पर उसका प्रमाण-पत्र हमारी सोच और व्यवहार में ज़िंदगीभर झलकता है।

मां की दी गई सीखें जो हमेशा साथ रहती हैं:

धैर्य – "सब्र का फल मीठा होता है" सिर्फ कहावत नहीं, मां जी कर दिखाती है।

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