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अगर आज नहीं सुधरे, तो कल...? घर तो होगा, लेकिन घर जैसा नहीं लगेगा।

आज की ज़िंदगी वाकई एक चक्रव्यूह बनती जा रही है — जहाँ हर कोई दौड़ रहा है, लेकिन मंज़िल क्या है, ये किसी को नहीं पता। परिवार, रिश्ते, संस्कार... इनकी जगह अब पैसों और स्वार्थ ने ले ली है।

ज़िंदगी: एक चक्रव्यूह या एक अवसर?

आज की दुनिया तेज़ रफ्तार से भाग रही है। हर इंसान कुछ पाना चाहता है — नाम, पैसा, शोहरत। लेकिन इस दौड़ में हम क्या खो रहे हैं?

रिश्ते। अपनापन। परिवार। भरोसा।

 

कभी वो दिन थे जब परिवार एक साथ बैठकर खाना खाता था, अब वो दिन हैं जब लोग एक ही छत के नीचे होकर भी एक-दूसरे से बात नहीं करते। भाई भाई से बात नहीं करता, बेटे माँ-बाप से नज़रें चुराते हैं।

क्या ये वही 'संस्कारी भारत' है जिसकी हम बातें करते थे?

 

 "रिश्ते वक़्त नहीं, समझदारी माँगते हैं।"

 

कहाँ गया वो अपनापन?

पहले रिश्तों को समय दिया जाता था, अब सिर्फ मोबाइल को। पहले खुशी बाँटी जाती थी, अब सोशल मीडिया पर स्टेटस डाला जाता है।

लोग अब पैसों के पीछे भागते हैं, मानो वही सब कुछ हो।

 

 "पैसा हर चीज़ खरीद सकता है — पर प्यार, इज़्ज़त और सुकून नहीं।"

 

परिवार में एकता क्यों नहीं रही?

स्वार्थ बढ़ गया है, सहनशीलता कम।

 

हर कोई खुद को "सही" साबित करने में लगा है।

 

संवाद की कमी हो गई है।

 

बच्चों को संस्कार देने वाला कोई नहीं बचा — माता-पिता भी बिज़ी, और बच्चे भी।

 

 "जहाँ संवाद खत्म होता है, वहाँ रिश्ते भी धीरे-धीरे दम तोड़ देते हैं।"

 

इसका जिम्मेदार कौन है?

हम सब।

हर वो इंसान जो बात करने के बजाय चुप रह जाता है।

हर वो बेटा जो माँ-बाप को बोझ समझता है।

हर वो भाई जो अहंकार में भाई को भूल गया।

हर वो माँ-बाप जो बच्चों को सिर्फ डॉक्टर या इंजीनियर बनाना चाहते हैं, इंसान नहीं।

 

 "बच्चों को कामयाब बनाने से पहले इंसान बनाइए, कामयाबी खुद पीछे आएगी।"

 

अब क्या करें?

बात करें। सबसे पहला कदम यही है।

 

माफ करना और माफ़ी माँगना सीखें।

 

एक दिन में सब नहीं सुधरेगा, लेकिन शुरुआत आज करनी होगी।

 

पैसे के पीछे भागना छोड़ो — रिश्ते भी निवेश मांगते हैं।

 

 "जो समय आज अपनों को नहीं दोगे, वही कल तुम्हारे पास नहीं होगा।"

 

अगर आज नहीं सुधरे, तो कल...?

घर तो होगा, लेकिन घर जैसा नहीं लगेगा।

 

परिवार होगा, लेकिन सिर्फ व्हाट्सएप ग्रुप में।

 

रिश्ते होंगे, लेकिन नाम के।

 

और तब पछताने से अच्छा है, आज संभल जाएँ।

 

 "संस्कारों की नींव मजबूत हो, तो रिश्तों की इमारतें खुद-ब-खुद खड़ी हो जाती हैं।"

 

 

ज़िंदगी चक्रव्यूह नहीं है, अगर हम एक-दूसरे का हाथ थाम लें।

रिश्ते बोझ नहीं हैं, अगर हम अहंकार छोड़ दें।

और परिवार टूटा नहीं है, बस हमें थोड़ा रुक कर एक-दूसरे की बात सुननी है।

"रिश्ते जोड़ने में वक़्त लगता है, तोड़ने में नहीं — सोचिए, आप जोड़ने वाले बनना चाहते हैं या तोड़ने वाले?"

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